August 28, 2025
birud panchami

आज उत्तराखंड में मनाई जा रही बिरुड़ पंचमी, जानिए क्यों भिगाए जाते हैं बिरुड़..

 

 

उत्तराखंड: उत्तराखंड की समृद्ध लोक परंपराओं और आस्थाओं से जुड़े खास पर्वों में से एक बिरुड़ पंचमी आज (27 अगस्त) पूरे प्रदेश में श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाई जा रही है। विशेष रूप से कुमाऊं क्षेत्र में इस त्यौहार की धूम देखने को मिल रही है। इसी के साथ प्रदेश का प्रसिद्ध लोक पर्व सातू-आंठू भी शुरू हो चुका है। इस दिन विवाहित महिलाएं पांच प्रकार के अनाज जिसे स्थानीय भाषा में बिरुड़ कहा जाता है। तांबे के बर्तन में भिगोकर अपने आराध्य देवों की पूजा-अर्चना करती हैं। यही अनाज इस पर्व का मुख्य प्रतीक माना जाता है। पूजा के बाद महिलाएं व्रत की शुरुआत करती हैं और अपने परिवार की सुख-समृद्धि एवं मंगलकामना के लिए प्रार्थना करती हैं। बिरुड़ पंचमी के साथ ही शुरू होने वाला सातू-आंठू पर्व उत्तराखंड के लोक जीवन से गहराई से जुड़ा हुआ है। इसे फसल, अन्न और जीवन की समृद्धि से जोड़कर देखा जाता है। यह पर्व केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक ही नहीं बल्कि सामाजिक एकजुटता और लोक संस्कृति की झलक भी प्रस्तुत करता है। बिरुड़ पंचमी और सातू-आंठू जैसे पर्व उत्तराखंड की लोक परंपरा को जीवंत बनाए रखते हैं। पीढ़ियों से चली आ रही इन परंपराओं में महिलाएं अपनी भूमिका निभाते हुए परिवार और समाज की भलाई की कामना करती हैं।

मान्यता है कि इस पर्व की परंपरा बिणभाट नामक एक ब्राह्मण के जीवन से आरंभ हुई थी। कहा जाता है कि बिणभाट के सात बेटे और सात बहुएं थीं, लेकिन उनमें से किसी की भी संतान नहीं थी। संतान सुख की कमी से दुखी बिणभाट एक दिन नदी किनारे पहुंचे, जहां उनकी मुलाकात साक्षात माता गौरा से हुई। उस समय माता गौरा नदी में अनाज धो रही थीं। माता गौरा ने बिणभाट को कहा कि जो महिलाएं सप्तमी और अष्टमी को व्रत रखकर बिरुड़े (पांच अनाज) भिगोएं, अखंड दीपक जलाएं और गौरा-महेश की श्रद्धा पूर्वक पूजा करें, उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इसी कथा के आधार पर बिरुड़ पंचमी का पर्व आज भी श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाया जाता है। विवाहित महिलाएं इस व्रत के माध्यम से अपने परिवार की सुख-समृद्धि, संतान सुख और मंगलकामना की प्रार्थना करती हैं। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार इस व्रत के प्रभाव से ही बिणभाट के परिवार को संतान सुख प्राप्त हुआ था।

क्या है बिरुड़ की कहानी?
बिणभाट ने अपनी बहुओं से ये व्रत करने को कहा। लेकिन छह बहुएं इस वृत को निभा नहीं सकी। सिर्फ सातवीं बहू ने श्रद्धा और विश्वास के साथ व्रत पूरा किया। जिसके बाद माता गौरा ने उसे संतान का सुख दिया। और यहीं से उत्तराखंड में बिरुड़ पंचमी की परंपरा शुरु हो गई। इस दिन पांच या सात अनाजों को तांबे के बरतन में भिगोया जाता है। इनमें दाड़िम, हल्दी, सरसों, दूर्बा और एक सिक्के की पोटली रखी जाती है। ये अनाज जब अंकुरित होते हैं तो पोषक तत्वों का खज़ाना बन जाता है। फिर सातू-आंठू में इन्हें प्रसाद के रूप में खाया जाता है। तभी से यह पर्व उत्तराखंड की लोक संस्कृति और धार्मिक आस्था का अभिन्न हिस्सा बन गया। आज भी कुमाऊं के गांव-गांव में इस पर्व की परंपरा पीढ़ियों से निभाई जा रही है।

 

 

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